सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि अमान्य, शून्य घोषित की गई या शून्य घोषित किए जाने योग्य विवाह से जन्मे बच्चे भी कानूनी अधिकार रखते हैं। यह फैसला हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत महत्वपूर्ण बदलाव लेकर आया है, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि ऐसे बच्चे भी अपने मृत माता-पिता की संपत्ति पर दावा कर सकते हैं। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में बेंच ने 2011 की एक याचिका पर यह निर्णय सुनाया।
कानूनी मान्यता और धारा 16 (2) का महत्व
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 (2) के तहत, शून्य घोषित या रद्द किए गए विवाह से पहले पैदा हुआ बच्चा भी कानूनी रूप से वैध माना जाएगा। यह प्रावधान स्पष्ट करता है कि विवाह को शून्य घोषित किए जाने के बावजूद, उस विवाह से जन्मे बच्चे को संपत्ति पर अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
संपत्ति के विभाजन का कानूनी दृष्टांत
फैसले में अदालत ने उदाहरण देते हुए बताया कि पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा कैसे बांटा जाएगा। मान लें, चार भाई—सी1, सी2, सी3, और सी4 हैं। सी2 की मृत्यु से पहले पारिवारिक संपत्ति का बंटवारा होता है और उसे एक चौथाई हिस्सा मिलता है। उसकी विधवा, वैध शादी से एक बेटी और शून्य घोषित विवाह से एक बेटा है। इस परिस्थिति में, सी2 के हिस्से को तीन बराबर भागों में विभाजित किया जाएगा, जिनमें उसकी विधवा, बेटी और शून्य घोषित विवाह से जन्मे बेटे को समान अधिकार मिलेगा।
शून्य और शून्य किए जाने योग्य विवाह
हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह को दो वर्गों में बांटा गया है—शून्य विवाह और शून्य किए जाने योग्य विवाह। शून्य विवाह में पति-पत्नी का दर्जा नहीं होता और इसे रद्द करने के लिए किसी डिक्री की आवश्यकता नहीं होती। जबकि शून्य किए जाने योग्य विवाह में, डिक्री आवश्यक होती है और विवाह के दौरान पति-पत्नी का दर्जा बना रहता है।
बेटियों के अधिकार और व्यापक दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सुनिश्चित किया कि बेटियों को समान संपत्ति अधिकार दिए जाएं। इस फैसले ने हिंदू उत्तराधिकार कानून के दायरे में आने वाले सभी बच्चों को एक समान अधिकार प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह निर्णय यह भी स्पष्ट करता है कि विवाह के बाहर जन्मे बच्चों के अधिकार स्व-अर्जित और पैतृक संपत्ति दोनों में सुरक्षित हैं।