
हाल ही में एक हैरान कर देने वाला फैसला सामने आया है, जिसमें हाईकोर्ट ने एक पति को अपनी पत्नी को ₹12,000 प्रति माह गुज़ारा भत्ता (Maintenance Allowance) देने का आदेश दिया है, जबकि पति की कुल मासिक आय मात्र ₹15,000 है। यह निर्णय आते ही सोशल मीडिया से लेकर कानूनी हलकों तक बहस का मुद्दा बन गया है। इस आदेश को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह फैसला न्यायोचित है और इसका भविष्य में क्या प्रभाव होगा।
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हाईकोर्ट के फैसले की पृष्ठभूमि
यह मामला उत्तर प्रदेश के एक दंपति से जुड़ा है, जो पिछले कुछ वर्षों से अलग रह रहे हैं। पत्नी ने घरेलू हिंसा और उपेक्षा के आरोप लगाते हुए अदालत में गुज़ारा भत्ते के लिए याचिका दायर की थी। पति ने अदालत के समक्ष अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए कहा कि वह सिर्फ ₹15,000 प्रति माह कमाता है और उस आय से खुद का खर्च भी मुश्किल से चला पाता है। इसके बावजूद कोर्ट ने पत्नी के पक्ष में फैसला देते हुए पति को हर महीने ₹12,000 देने का निर्देश दिया।
कोर्ट का तर्क: पत्नी की स्वतंत्रता और गरिमा जरूरी
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि भले ही पति की आय सीमित हो, लेकिन एक महिला की गरिमा और उसकी न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति किसी भी हाल में उपेक्षित नहीं की जा सकती। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने का अधिकार केवल पुरुषों का नहीं बल्कि महिलाओं का भी है, और उसका एक सम्मानजनक जीवन जीना अनिवार्य है।
समाज में उठते सवाल और आलोचना
इस फैसले के बाद विभिन्न सामाजिक और कानूनी विशेषज्ञों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह का निर्णय पुरुषों के आर्थिक और मानसिक शोषण को बढ़ावा देता है। सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा ट्रेंड करने लगा, जहां कई यूजर्स ने कोर्ट के फैसले पर नाराज़गी जताई।
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वहीं कुछ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अगर महिला पूर्णतः असहाय हो और पति की आय भले ही कम हो, लेकिन वह कोई और ज़िम्मेदारी साझा नहीं कर रहा है, तो पत्नी को न्यूनतम ज़रूरतें पूरा करने का अधिकार है।
क्या कहता है कानून?
भारतीय दंड संहिता की धारा 125 (Section 125 of IPC) के तहत कोई भी महिला जो खुद का पालन-पोषण नहीं कर सकती, वह अपने पति से गुज़ारा भत्ता मांग सकती है। इसमें पति की आय, पत्नी की ज़रूरतें और अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है। हालांकि, ऐसे मामलों में आमतौर पर पति की आय का लगभग एक तिहाई हिस्सा गुज़ारा भत्ते के रूप में निर्धारित किया जाता है।
इस केस में ₹15,000 की आय में से ₹12,000 का आदेश देना असाधारण और असमान्य माना जा रहा है, जो आगे चलकर उच्चतम न्यायालय में चुनौती का कारण बन सकता है।
क्या यह फैसला अपील योग्य है?
कानूनी जानकारों का कहना है कि इस फैसले को उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) में चुनौती दी जा सकती है। अगर पति अपनी आय के दस्तावेज़ों और अन्य दायित्वों को पेश करता है, तो सुप्रीम कोर्ट इस आदेश में संशोधन कर सकता है।
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बढ़ती बहस: पितृसत्ता बनाम महिला अधिकार
इस तरह के मामलों में अक्सर सामाजिक विमर्श पितृसत्ता और महिला अधिकारों के बीच उलझ जाता है। कई पुरुष अधिकार कार्यकर्ता इसे एकतरफा फैसला मानते हैं, जबकि महिला संगठन इसे न्याय का प्रतीक मानते हैं।
यह फैसला एक बार फिर इस सवाल को सामने लाता है कि क्या न्यायिक फैसलों में संतुलन बनाए रखना संभव है, जहां दोनों पक्षों की जरूरतों और सीमाओं को समान रूप से समझा जाए।
भविष्य में असर: न्याय प्रणाली पर बढ़ेगा दबाव
इस तरह के फैसलों का प्रभाव अन्य मामलों पर भी पड़ सकता है। अगर इस फैसले की नज़ीर आगे के मामलों में दी जाती है, तो न्यायपालिका पर दबाव बढ़ेगा कि वह प्रत्येक केस की परिस्थितियों को गंभीरता से समझे और समानता पर आधारित निर्णय दे।