पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने वैवाहिक विवादों से जूझ रहे कई लोगों के लिए एक मिसाल पेश की। यह मामला संगरूर के एक तलाकशुदा दंपत्ति का था, जिन्होंने फैमिली कोर्ट में आपसी सहमति से तलाक लिया था। लेकिन तलाक के बाद उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने हाईकोर्ट से तलाक रद्द करने की अपील की। हाईकोर्ट ने उनकी अपील को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि तलाक का आदेश रद्द नहीं हो सकता, लेकिन वे अधिनियम की धारा 15 के तहत दोबारा विवाह कर सकते हैं।
हाईकोर्ट ने क्यों खारिज की अपील?
हाईकोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि आपसी सहमति से दिए गए तलाक को रद्द करने की अनुमति देना कोर्ट की अवमानना के बराबर होगा। जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस सुदीप्ति शर्मा की पीठ ने कहा कि ऐसा करना न केवल कोर्ट की गवाही की पवित्रता को कम करेगा, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाएगा।
अधिनियम के तहत, यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति से तलाक लेते हैं, तो वे अपने शपथ पत्र वापस नहीं ले सकते और कोर्ट को यह कहकर प्रभावित नहीं कर सकते कि उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ है। हालांकि, उन्होंने यह स्पष्ट किया कि तलाक के बाद पुनर्विवाह के लिए कोई कानूनी रोक नहीं है।
तलाक के बाद पुनर्विवाह का कानूनी पक्ष
हाईकोर्ट ने सीपीसी की धारा 96(3) का उल्लेख किया, जिसके तहत सहमति से पारित तलाक के आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती। साथ ही, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 में यह प्रावधान है कि तलाक के बाद दोनों पक्ष पुनर्विवाह कर सकते हैं।
पीठ ने कहा कि यदि तलाकशुदा पति-पत्नी साथ रहने की इच्छा रखते हैं, तो उनके पास पुनर्विवाह का विकल्प खुला है। यह न केवल उनकी व्यक्तिगत इच्छा का सम्मान करता है, बल्कि उनके नाबालिग बच्चे के कल्याण के लिए भी एक बेहतर कदम है।
बच्चों का कल्याण और तलाक का असर
इस मामले में दंपत्ति ने यह तर्क दिया कि उनके तलाक का सबसे गहरा प्रभाव उनकी नाबालिग बेटी पर पड़ा है। पति-पत्नी का साथ आना उनके बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए जरूरी था। हाईकोर्ट ने इस तर्क को मानते हुए कहा कि अगर दोनों पक्ष पुनर्विवाह करना चाहते हैं, तो उनके पास यह विकल्प पूरी तरह से खुला है।
क्या आपसी सहमति से तलाक रद्द हो सकता है?
यह सवाल अक्सर उठता है कि क्या आपसी सहमति से हुए तलाक को रद्द किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि ऐसा करना कानूनी तौर पर संभव नहीं है। सहमति से तलाक एक गंभीर और कानूनी प्रक्रिया है, जिसे वापस लेना कोर्ट के अधिकारों और उसकी विश्वसनीयता पर नकारात्मक असर डाल सकता है।