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‘राइट टू प्रॉपर्टी’ गया, अब क्या सरकार की मनमानी चलेगी? हाई कोर्ट ने सुनाया ऐसा फैसला सरकार होगी मजबूर

क्या आपकी जमीन सरकार कभी भी ले सकती है? जानिए दिल्ली हाई कोर्ट के उस चौंकाने वाले फैसले के बारे में जिसने 'राइट टू प्रॉपर्टी' को फिर से चर्चा में ला दिया है। कोर्ट ने सरकार को 1.76 करोड़ रुपये का मुआवजा देने को कहा – वजह जानकर आप भी हैरान रह जाएंगे

By PMS News
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‘राइट टू प्रॉपर्टी’ गया, अब क्या सरकार की मनमानी चलेगी? हाई कोर्ट ने सुनाया ऐसा फैसला सरकार होगी मजबूर
‘राइट टू प्रॉपर्टी’ गया, अब क्या सरकार की मनमानी चलेगी? हाई कोर्ट ने सुनाया ऐसा फैसला सरकार होगी मजबूर

दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ (Right to Property) अब भले ही भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं रह गया हो, लेकिन यह अब भी एक संविधानिक और कानूनी अधिकार (Constitutional and Legal Right) के रूप में सुरक्षित है। कोर्ट ने यह टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसमें एक नागरिक की संपत्ति को सरकारी अधिकारियों द्वारा अवैध रूप से अधिग्रहण करने का आरोप था। कोर्ट ने इस मामले में सरकार को 1.76 करोड़ रुपये का मुआवजा देने का निर्देश भी दिया।

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दिल्ली हाई कोर्ट का स्पष्ट संदेश: राज्य की जिम्मेदारी है नागरिक अधिकारों की रक्षा

कोर्ट ने अपने निर्णय में दो टूक कहा कि लोगों के नागरिक अधिकारों — विशेष रूप से संपत्ति के अधिकार — की रक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है। यह बताते हुए कि ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ को 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार की श्रेणी से हटा दिया गया था, अदालत ने कहा कि यह अधिकार अब अनुच्छेद 300A के तहत संरक्षित है और किसी की संपत्ति केवल कानून के अनुसार ही छीनी जा सकती है।

अदालत ने यह भी कहा कि यदि किसी की संपत्ति कानून के विपरीत जब्त की जाती है, तो यह संविधान का उल्लंघन माना जाएगा। यह टिप्पणी उस मामले के संदर्भ में आई जिसमें एक नागरिक की भूमि का अधिग्रहण सरकार द्वारा बिना किसी विधिक प्रक्रिया के कर लिया गया था।

सरकार को देना होगा ₹1.76 करोड़ का मुआवजा

इस मामले में अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता की भूमि को कानूनी प्रक्रिया के बिना कब्जा किया गया, जो न केवल असंवैधानिक है बल्कि राज्य की ज़िम्मेदारियों की सीधी अनदेखी भी है। अदालत ने सरकार को आदेश दिया कि वह पीड़ित व्यक्ति को ₹1.76 करोड़ का मुआवजा प्रदान करे।

इस निर्णय से यह भी स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका अब भी ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ को गंभीरता से लेती है और यदि नागरिकों के अधिकारों का हनन होता है, तो उन्हें न्याय दिलाना न्यायालय की प्राथमिकता है।

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संपत्ति का अधिकार क्यों है अहम?

भारत में ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ का एक समय में उतना ही महत्व था जितना अन्य मौलिक अधिकारों का। लेकिन 1978 के 44वें संविधान संशोधन के बाद इसे मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया और इसे अब संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत केवल एक संवैधानिक अधिकार माना जाता है। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति की संपत्ति को केवल विधिक आधार पर और उचित मुआवजे के साथ ही छीना जा सकता है।

यह फैसला हमें यह भी याद दिलाता है कि चाहे ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ अब मौलिक अधिकार न रहा हो, फिर भी उसकी संवैधानिक वैधता बनी हुई है और यदि इस अधिकार का उल्लंघन होता है, तो अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं।

नागरिकों को क्यों मिलनी चाहिए कानूनी सुरक्षा?

दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में यह दोहराया कि यदि राज्य स्वयं ही कानूनों का उल्लंघन करेगा और नागरिकों की संपत्ति को बिना प्रक्रिया के जब्त करेगा, तो यह न केवल लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि न्याय का भी अपमान है। अदालत ने कहा कि यह फैसला एक उदाहरण के तौर पर देखा जाना चाहिए कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाएगी।

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गुरमीत राम रहीम सिंह को बार-बार पेरोल मिलने पर सवाल

दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले के समानांतर, एक और मुद्दा भी चर्चा में रहा — डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को बार-बार पेरोल दिए जाने पर सवाल उठे हैं। कई लोगों ने इसे न्याय प्रक्रिया में दोहरा मानदंड बताया है, जबकि कुछ ने इसे सुधारात्मक न्याय प्रणाली का हिस्सा माना है। यह विषय भी नागरिकों की समानता और न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता से जुड़ा हुआ है।

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