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सरकार को कोर्ट ने दिया सबसे बड़ा झटका – इस आम आदमी को मिलेंगे 1.76 करोड़! क्या है इस केस की कहानी?

1977 में जब्त किया गया था दिल्ली के अंसल भवन में एक फ्लैट, सरकार ने बिना वैध आदेश 23 साल तक नहीं लौटाई संपत्ति। हाई कोर्ट ने अब दिया 1.76 करोड़ का हर्जाना और सुनाई सख्त फटकार। जानिए कैसे एक परिवार की कानूनी जंग बन गई संविधान और नागरिक अधिकारों की ऐतिहासिक जीत

By PMS News
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सरकार को कोर्ट ने दिया सबसे बड़ा झटका – इस आम आदमी को मिलेंगे 1.76 करोड़! क्या है इस केस की कहानी?
सरकार को कोर्ट ने दिया सबसे बड़ा झटका – इस आम आदमी को मिलेंगे 1.76 करोड़! क्या है इस केस की कहानी?

दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने एक ऐतिहासिक फैसले में न्याय की जीत को सुनिश्चित किया है। मामला दिल्ली के प्रतिष्ठित कस्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित अंसल भवन (Ansal Bhawan) के एक फ्लैट से जुड़ा है, जहां एक परिवार ने जीवन बसाने का सपना देखा था। लेकिन यह सपना करीब 23 वर्षों तक कानूनी जाल और राज्य की कथित अन्यायपूर्ण कार्रवाई के कारण अधूरा रहा। अब कोर्ट ने न्याय करते हुए केंद्र सरकार को वादियों को 1.76 करोड़ रुपये का हर्जाना देने का आदेश दिया है।

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आपातकाल से शुरू हुई संपत्ति विवाद की जटिल कहानी

इस मामले की जड़ें 1977 के आपातकाल (Emergency) से जुड़ी हैं, जब सरकार ने एक निरोध आदेश के तहत इस फ्लैट को जब्त कर लिया। बाद में यह निरोध आदेश रद्द कर दिया गया, लेकिन संपत्ति को वापस नहीं किया गया। वर्ष 1998 में केंद्र सरकार ने फ्लैट को SAFEMA (Smugglers and Foreign Exchange Manipulators (Forfeiture of Property) Act) कानून के तहत जब्त कर लिया, जिससे वादियों को उनका हक नहीं मिल सका।

संपत्ति अधिकार की संवैधानिक सुरक्षा

दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस पुरुषेन्द्र कुमार कौरव की पीठ ने कहा कि भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं रहा, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत यह अब भी एक मजबूत कानूनी अधिकार है। इसे बिना उचित प्रक्रिया और वैधानिक आधार के छीना नहीं जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जो राज्य नागरिकों के अधिकारों का रक्षक है, वह भक्षक नहीं बन सकता।

मानसिक, आर्थिक और कानूनी उत्पीड़न का दावा

वादियों ने कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए बताया कि न केवल उनकी संपत्ति उनसे छीन ली गई, बल्कि उन्हें लंबे समय तक मानसिक, आर्थिक और कानूनी उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। उन्होंने मेज़न प्रोफिट (Mesne Profit – अवैध कब्जे के दौरान संभावित किराया), संपत्ति के बाजार मूल्य का नुकसान और ब्याज की भरपाई की मांग की थी।

कार्यपालिका की संवैधानिक सीमा

कोर्ट ने अपने फैसले में कार्यपालिका की भूमिका पर तीखी टिप्पणी की और कहा कि जब सरकार स्वयं नागरिकों के अधिकारों का हनन करने लगे, तो लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है। संविधान की मर्यादा और सीमाओं का पालन हर स्थिति में आवश्यक है। राज्य को नीतिगत या कानूनी शक्तियों का उपयोग न्याय के अनुरूप करना चाहिए, अन्यथा यह संवैधानिक अपराध बन जाता है।

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1999 से 2020 तक की अवधि को माना अवैध कब्जा

कोर्ट ने इस मामले में 1999 से लेकर 2020 तक की अवधि को ‘अवैध कब्जा’ मानते हुए केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह वादियों को 1.76 करोड़ रुपये का हर्जाना अदा करे। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फैसला केवल एक व्यक्ति या परिवार की जीत नहीं है, बल्कि उन सभी नागरिकों के लिए आशा की किरण है जो राज्य की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं।

न्याय की देरी, लेकिन पूरी गरिमा के साथ

इस फैसले में कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि न्याय में देरी हुई है, लेकिन जब फैसला आया तो उसमें पूरी संवैधानिक गरिमा और नागरिक अधिकारों की रक्षा की भावना थी। इस ऐतिहासिक निर्णय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि भारतीय न्याय प्रणाली (Judicial System) देर से सही, लेकिन न्याय जरूर देती है।

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भविष्य के लिए संदेश: नागरिक अधिकार सर्वोपरि

यह फैसला आने वाले समय में एक मिसाल के रूप में देखा जाएगा। खासकर उन मामलों में जहां राज्य अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए नागरिकों की संपत्ति या अधिकारों का हनन करता है। यह निर्णय न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को दर्शाता है, बल्कि संविधान में निहित नागरिक अधिकारों की रक्षा की भी पुष्टि करता है।

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