
भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे मौजूदा तनाव ने एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट ला दी है। मीडिया रिपोर्ट्स और खुफिया एजेंसियों के हवाले से कहा जा रहा है कि हालात इतने संवेदनशील हो चुके हैं कि युद्ध जैसी परिस्थितियां कभी भी उत्पन्न हो सकती हैं। इसी क्रम में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को अलर्ट रहने के निर्देश दिए हैं और गृह मंत्रालय ने 7 मई को सिविल डिफेंस मॉक ड्रिल (Mock Drill) आयोजित करने का आदेश जारी किया है। यह मॉक ड्रिल खासतौर पर हवाई हमले की स्थिति से निपटने की तैयारी के तहत करवाई जा रही है। गौरतलब है कि इससे पहले ऐसी मॉक ड्रिल 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय की गई थी।
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इस घटनाक्रम के बीच एक सवाल आम नागरिकों के मन में उठता है कि अगर युद्ध की स्थिति बनती है तो क्या भारतीय सेना के जवान (Soldiers) जंग लड़ने से इनकार कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब सेना की संरचना और अनुशासन में छिपा है।
क्या सैनिक युद्ध लड़ने से मना कर सकते हैं?
भारतीय सेना (Indian Army) का हर जवान जब फौज में शामिल होता है, तो वह देश की रक्षा की शपथ लेता है। यह शपथ उसे हर परिस्थिति में देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा करने के लिए बाध्य करती है। ऐसे में सामान्य स्थितियों में कोई भी सैनिक युद्ध लड़ने से इनकार नहीं कर सकता। सेना में सेवा देना एक संवैधानिक और अनुशासनात्मक दायित्व है, जिसमें व्यक्तिगत इच्छाओं की अपेक्षा देशहित सर्वोपरि होता है।
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विवेकपूर्ण आपत्तिकर्ता (Conscientious Objector) का अधिकार
हालांकि, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और कुछ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में “विवेकपूर्ण आपत्तिकर्ता” यानी Conscientious Objector की अवधारणा मौजूद है। यह वह व्यक्ति होता है जो अपने धार्मिक विश्वास, नैतिक सिद्धांत या अंतरात्मा की आवाज के आधार पर सैन्य सेवा से इनकार करता है। भारत में यह व्यवस्था सीमित है और इसे सामान्य परिस्थितियों में स्वीकार नहीं किया जाता।
भारतीय सेना में जब कोई व्यक्ति भर्ती होता है, तो वह यह शपथ लेता है कि किसी भी आपातकाल या युद्ध की स्थिति में वह बिना कोई व्यक्तिगत आपत्ति किए सेवा करेगा। ऐसे में विवेकपूर्ण आपत्ति का आधार केवल विशेष और अपवादात्मक मामलों में ही स्वीकार किया जा सकता है।
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किन हालातों में सैनिक युद्ध से हट सकता है?
कुछ अपवाद ऐसे हो सकते हैं, जब कोई सैनिक युद्ध में भाग न ले पाने की स्थिति में होता है:
- यदि सैनिक गंभीर रूप से घायल या बीमार हो।
- मानसिक स्वास्थ्य की ऐसी स्थिति हो जो जंग के मैदान में उसकी क्षमताओं को प्रभावित करती हो।
- कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी या सैन्य न्यायालय से विशेष अनुमति मिली हो।
लेकिन इन सभी स्थितियों में निर्णय पूरी तरह से सेना की आंतरिक प्रक्रिया और चिकित्सा प्रमाणों पर निर्भर करता है।
युद्ध के वक्त सैनिकों की जिम्मेदारी
सेना के जवानों की प्राथमिक जिम्मेदारी देश की सीमाओं की रक्षा करना होता है। चाहे वह युद्ध हो, आतंकवादी हमला हो या प्राकृतिक आपदा, सैनिक हमेशा आगे रहते हैं। यह उनका केवल कर्तव्य नहीं बल्कि कसम भी होती है, जो वे सेना में भर्ती होते समय खाते हैं।
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सेना का ढांचा पूरी तरह से अनुशासन, आदेश और आदेश पालन पर आधारित होता है। इसलिए जब कोई आदेश आता है, विशेषकर युद्ध जैसी परिस्थिति में, तब उसकी अवहेलना करना कोर्ट मार्शल जैसी कठोर कार्रवाई को आमंत्रित कर सकता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण: 1971 युद्ध की तैयारी
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें देशभर में सिविल डिफेंस मॉक ड्रिल करवाई गई थी। उस समय भी नागरिकों और सशस्त्र बलों को किसी भी आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार रहने के निर्देश दिए गए थे। मौजूदा आदेश उसी की पुनरावृत्ति के तौर पर देखा जा रहा है, जहां केंद्र सरकार भविष्य की किसी भी आपात स्थिति से पहले ही तैयारी सुनिश्चित करना चाहती है।